Editor's Desk | 28 November 2022, 06:33 AM IST

Four Agreements By Don Miguel Ruiz Book Summary

Four Agreements By Don Miguel Ruiz Book Summary

किताब के बारे में
इस किताब में आप सीखेंगे आजादी पाने के चार समझौते। आप सीखेंगे कि आपके सपने असल में आपके सपने नहीं है। आप एक ऐसी जिंदगी जी रहे हैं जिसके रूल्स आपके पेरेंट्स और सोसाइटी ने बनाए हैं। आप जो सोचते हैं उससे यह दुनिया बिल्कुल अलग है। यह किताब आपको असल सच्चाई से मिलाए गी जिससे आप पूरी आजादी से अपनी जिंदगी को जी सकते हैं।

ये किताब किसे पढ़नी चाहिए
यह किताब उन लोगों को पढ़नी चाहिए जो अपनी जिंदगी को पूरी आजादी से जीना चाहते हैं। जो लोग अपनी लाइफ में चेंज लाना चाहते हैं। जो लोग खुशी की तलाश में है। और वो लोग जो हमेशा परेशान रहते हैं छोटी-छोटी बातों के लिए।

ऑथर के बारे में
डॉन मिगुएल रूइज (Don Miguel Ruiz) एक ऑथर है। रूइज ने बहुत सारी किताब लिखी है जिसमें से द फोर एग्रीमेंट्स सबसे पॉपुलर बुक है। जिसको 45 से ज्यादा भाषाओं में ट्रांसलेट किया गया है।

इस किताब की खास लर्निंग

1. मनुष्य की परवरिश और ग्रह का सपना
क्या आपको पता है जो सपने आप देखते हैं असल में वो आपके सपने है? या आपके परिवार और सोसाइटी के ? क्या आपको याद है? जब आप बचपन में अपने पेरेंट्स की हर बात मानते थे तब आपको शाबाशी दी जाती और जब आप उनकी बातें नहीं मानते थे तो आपको सजा दी जाती थी। हमें अपने बचपन से ही बताया जाता है कि हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है। और जब हम वैसा करते हैं तो हमें इनाम दिया जाता है और जब हम वैसा नहीं करते हैं तो हमें दंड दिया जाता हैं। बचपन से ही हमारे मन में यह डर बैठ जाता है कि अगर हम अपने परिवार और सोसाइटी के रूल्स के अगेंस्ट कुछ करेंगे तो हमें दंड मिलेगा।

और इसी डर के चलते हम कभी भी अपनी बात अपने परिवार और सोसाइटी के सामने अच्छे से नहीं रख पाते है। क्योंकि हमारे मन में बचपन से ही वो डर बैठ गया है।हम हमेशा से दंडित होने के डर और पुरस्कार न मिलने के डर से हम खुद को वह मानने लगते है जो हम असल में नहीं हैं। हम दूसरों को खुश करने के लिए यह दिखावा करने लगते हैं कि हम उनके लिए बहुत अच्छे हैं। जैसे हम घर में माता-पिता, स्कूल में टीचर्स और मंदिर में पुजारी को खुश करना चाहते हैं ताकि उन्हें ऐसा लगे कि हम वही हैं जैसा वे हमें बनाना चाहते हैं। क्योंकि हमें रिजेक्शन का डर सताता है। और यही डर हमें बेहतर नहीं होने देता और धीरे-धीरे हम ऐसे इंसान में बदल जाते हैं, जो हम हैं ही नहीं। हम अपने माता-पिता, समाज और धर्म से जुड़े विश्वासों की नकल बनकर रह जाते हैं।

बचपन में हम अपने परिवार के कंट्रोल में रहते थे और वही कंट्रोल आज नहीं होने के बावजूद भी हम खुद को उस से आजाद नहीं कर पाते हैं। बचपन से हमारी जो प्रोग्रामिंग हो गई है उसी प्रोग्रामिंग से हम आज भी जी रहे हैं। अब चाहे वो गलत हो या सही लेकिन अभी वो वक्त आ गया है खुद को उससे आजाद करने का ताकि आप इस जिंदगी को खुलकर जी सको अपने हिसाब से। आपको अपनी सोच बदलनी होगी ताकि आप वो कर सको जो आप करना चाहते हो। हमारे जीवन को जो धारणाएँ चलाती हैं अगर वे हमें पसंद न हों तो हमें उन्हें बदल देना चाहिए।

2. अपने शब्दों के साथ निष्पाप रहे – पहला एग्रीमेंट
पहला एग्रीमेंट है अपने शब्दों को सोच समझकर यूज़ करना। शब्दों के ज़रिए इंसान अपने लिए सुंदर संसार का निर्माण भी कर सकता है और शब्दों के माध्यम से वह अपने आस-पास का संसार तबाह भी कर सकता है। अभी ये आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कैसे शब्दों का यूज करते हैं। आपके द्वारा बोले गए वर्ड्स में बहुत पावर होती है जो किसी को कमजोर भी बना सकते हैं और किसी को शक्तिशाली भी बना सकते हैं। अगर आपको कोई कहता है कि आप बिल्कुल ही बेकार हो कोई भी काम ढंग से नहीं करते तो धीरे-धीरे आप यह मानने लग जाओगे कि आप वास्तव में बेकार हो। और यह आप पूरी जिंदगी भर मानते रहोगे जब तक कोई आपको यह ना बता दें कि आप भी कुछ बड़ा कर सकते हो।

हमेशा सोच समझकर बोले कोई भी ऐसी बात ना बोले जो लोगों को कमजोर बना दे। हमेशा पॉजिटिव वर्ड्स का यूज़ करें। क्योंकि एक बार आप किसी को कुछ बोल देते हैं तो आपने तो एक बार बोला लेकिन जिसको आप ने बोला है उसके दिमाग में वो जिंदगी भर के लिए छप जाता है। शब्दों में इतनी शक्ति होती है कि केवल एक शब्द भी लाखों लोगों के जीवन में परिवर्तन ला सकता है। मनुष्य का मन किसी उपजाऊ जमीन की तरह होता है, जिसमें लगातार बीज बोए जाते हैं। और वो बीज इंसान के विचार और धारणा के होते हैं।

इसे ऐसे समझें कि आप कई दिनों बाद अपने एक दोस्त से मिलने जाते हैं और उसे देखते ही आप कहते हैं, ‘अरे! तुम्हारा चेहरा ऐसा क्यों लग रहा है, जैसा बीमार इंसान का लगता है। सब कुछ ठीक तो है ना!’ अब यदि आपका दोस्त आपके शब्दों पर बार-बार सोचता है और विश्वास करने लगता है तो स्वस्थ होने के बावजूद उसे बीमारी की भावना महसूस होगी। यही है शब्दों की असली ताकत।

एक लड़की के बारे में कोई कहता है कि वह सुंदर नहीं है। वह लड़की यह बात सुनती है और उस पर विश्वास रखकर खुद को बदसूरत मानने लगती है। हालाँकि वह सुंदर है लेकिन फिर भी उसके बारे में कहे गए उन शब्दों के कारण वह जीवनभर ‘मैं सुंदर नहीं हूँ’ इसी भ्रम में जीवन जीती है। उसी विचार के साथ वह बड़ी होती है। और फिर वह लड़की जिंदगी भर भ्रम में ही जीती है कि वह सुंदर नहीं है। इसलिए कभी भी लोगों की बातों पर विश्वास ना करें कि वह आपको क्या बोल रहे हैं।

शब्द हमारा ध्यान आकर्षित करके हमारे मन में प्रवेश करते हैं। इन्हीं शब्दों को जब विश्वास का साथ मिलता है तो वे धारणाओं का निर्माण करते हैं। फिर ये हमारे जीवन को सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टिकोण की ओर ले जाते हैं।

हम लगातार अपने आपको ही कोसते हैं, जैसे ‘मैं मोटा लग रहा हूँ… मैं बूढ़ा होने लगा हूँ… मेरे बाल झड़ रहे हैं… मैं कितना मूर्ख हूँ… मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता.. . मैं कभी भी अच्छा काम नहीं कर पाता… मैं कभी परफेक्ट नहीं बनने वाला…।’ इन वाक्यों से हमें यह समझ में आता है कि कितनी बार हम अपने लिए ही गलत शब्द बोलते हैं।

हर दिन अपने आपको बताएँ कि आप कितने महान और अच्छे हैं। आप खुद से कितना प्यार करते हैं, यह अपने आपको बार-बार बताते रहें। इन पॉजिटिव एनर्जी देने वाले शब्दों से ही आपकी पुरानी सारी धारणाएँ और मान्यताएँ टूट सकती है और आप एक पॉजिटिव इंसान बन सकते हैं।

3. किसी भी बात को निजी तौर पर न लें – दूसरा एग्रीमेंट
दूसरा एग्रीमेंट कहता है किसी भी बात को निजी तौर पर न ले। आपके आस पास जो भी घट रहा है उसे पर्सनली न ले। यदि मैं आपको बिना जाने-पहचाने सड़क पर देखकर कहता हूँ कि ‘आप मूर्ख हैं।’ तो वास्तव में ऐसा मैं अपने बारे में कह रहा हूँ, आपके बारे में नहीं। लेकिन यदि आप मेरी बात सुनकर दुःखी होते हैं तो इसका मतलब यही है की आप मेरी बात से सहमत होकर खुद को मूर्ख मानते हैं। आप इस तरह कही गई बात को पर्सनली लेते हैं क्योंकि आप भी उस बात से सहमत होते हैं। और जैसे ही आप इन बातों पर विश्वास करते हैं तो यह जहर आपके अंदर चला जाता है जो आपको हर वक्त परेशान करता है।

एक्चुअली हम अपने आप को इतनी इंपॉर्टेंस देते हैं कि हमें लगने लगता है की हर बात हमारे बारे में ही हो रही है। हम बचपन से ही हर बात को पर्सनली लेना सीख लेते हैं। हमें लगता है कि हर बात के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। वास्तव में लोग जो भी कर रहे हैं उसमें आपका कोई पार्टिसिपेशन नहीं होता है। लोग जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं वह अपनी मान्यता और अपनी सोच के कारण करते हैं। हर इंसान अपनी ही दुनिया और अपने सपनों में जीता है। उनकी दुनिया हमारी दुनिया से बिल्कुल अलग होती है। जब हम किसी की बात को पर्सनली लेते हैं तो हम यह मान लेते हैं कि लोगों को हमारे बारे में और हमारे जीवन में जो भी हो रहा है उसके बारे में पूरी जानकारी है।

इसलिए हम अपने जीवन में होने वाली घटनाओं को लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं। अगर कोई इंसान आप की इंसल्ट करता है या आपको ताना मारता है तो वो उसकी सोच है वो उसका दृष्टिकोण है ना कि आपका इसलिए आपको उस समय भी परेशान होने की जरूरत नहीं है। जैसा अगर आपको कोई कहता है कि आप मोटे हैं या पतले हैं तो वह उसकी मान्यता और उसकी कंडीशन के आधार पर ऐसा कह रहा है। अगर आप लोगों की बातों को पर्सनली ले लेते हैं और दुखी होते हैं तो उनके द्वारा फेंका गया जहर आपने पी लिया। लेकिन अगर आप लोगों की बातों से प्रभावित नहीं होते हैं और कोई रिएक्शन नहीं देते हैं तो उनके शब्दों का आपके ऊपर कोई असर नहीं होगा।

अगर आप लोगों की बातों को पर्सनली लेते है तो आप आसानी से उनके झांसे में आ जाएंगे। लोग केवल एक राय से भी आपको बातों में उलझा सकते हैं और आप उनकी राय को पर्सनली लेकर उनके द्वारा भेजे गए जहर को स्वीकार कर लेंगे। और जब आप लोगों की नेगेटिव बातों से सहमत होते हैं तो तो देखते ही देखते उनका नकारात्मक भावनाओं को कचरा आपका हो जाता है। जो आपको धीरे-धीरे कमजोर कर देता है।

जब आप लोगों की बातों को पर्सनली लेते हैं तो आपको ही तकलीफ होती है। आप छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बना देते हैं क्योंकि आपके मन में खुद को सही और दूसरों को गलत साबित करने पड़ी होती है।

सामने वाला इंसान समझदार है तो उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप उसके बारे में क्या सोचते हैं। वो कभी भी आपकी बात को पर्सनली नहीं लेगा।

कुछ लोग होंगे जो आपके काम की तारीफ करेंगे और कुछ लोग होंगे जो आपके काम की बुराई करेंगे लेकिन आपको दोनों ही बातों को पर्सनली नहीं लेना है क्योंकि आपको पता है कि आप असल में क्या हो। क्योंकि लोग जब अच्छे मूड में होता है तो लोगों से भी अच्छे से बात करते हैं और जब खराब मूड में होते हैं तो लोगों से भी बदतमीजी से बात करते हैं।

लोग आपके बारे में जो भी सोचते हैं या कहते हैं वह उनकी समस्या है आपकी नहीं आपका नजरिया अलग है इस दुनिया को देखने का इसलिए कभी भी लोगों की बातों को पर्सनली न लें।

हर इंसान की एक अलग राय होती है, बचपन से उनकी कई मान्यताएं बन जाती है इसलिए वह इंसान जो भी सोचता है वह सच ही हो, ऐसा जरूरी नहीं है।

लोग आपके बारे में जो भी सोचे, कहे या करें, उन बातों को पर्सनली न लें। अगर लोग आपको अच्छा इंसान मानते हैं वह आपकी वजह से नहीं मानते हैं। आपको उनकी ऐसी बातों को भी गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि आप पहले से जानते है कि आप एक अच्छे इंसान हैं। इसके लिए जरूरी नहीं है कि कोई और आकर आपको आपकी ही अच्छाई बताए। किसी की भी अच्छी और बुरी दोनों ही बातों को पर्सनली ना लें।

लोग आपके बारे में जो भी राय रखते हैं, वह सच नहीं होती लेकिन यह भी जरूरी नहीं है कि आप अपने बारे में जो राय रखते हैं, वह भी सच ही हो। क्योंकि आपके मन में लगातार इस तरह की कई बातें आती है जो आपका मन कहीं से भी पकड़ लेता है।

मन में आयी आवाज़ को सुनना है या नहीं, उसे महत्त्व देना है या नहीं इस बात का पूरा अधिकार आपके पास होता है।

जिस तरह हम यह तय कर सकते हैं कि हमें लोगो के की बातों को महत्त्व देना है या नहीं, उसी तरह अपने अंदर से आई आवाज़ को सुनना है या नहीं इस बात को भी हम खुद तय कर सकते हैं।

जब आप लोगो की बातों को पर्सनली न लेने की आदत खुद में विकसित करते हैं तब वास्तव में आप अपने जीवन की कई समस्यों से निपटने की क्षमता निर्माण करते हैं। इस एक आदत को जीवन का अंग बना लेने से आपका गुस्सा, जलन, नफरत और निराशा की भावनाएँ भी आपके पास नहीं आएँगी।

जब आप वह भावनात्मक ज़हर ग्रहण नहीं करते जो लोगों ने अपनी बातों के द्वारा आपके पास भेजा तो वह उसी इंसान के पास वापस जाता है, जिसने उसे भेजा था। उसके लिए वह ज़हर और भी ज्यादा भयानक होता है।

4. पहले से मान्यताएं न बनाएँ – तीसरा एग्रीमेंट
तीसरा एग्रीमेंट कहता है कि आपको पहले से कोई धारणा (मान्यता) नहीं बनानी चाहिए और न ही कोई अनुमान लगाना चाहिए। इंसान को हर चीज के बारे में पहले से ही मान्यता बनाने की आदत होती है। जब इंसान बिना किसी बात को पूरी जाने समझे उसे अपने मन में सच मान लेता है तो वह चीज उसके दुख का कारण बनती है। दूसरे लोग क्या सोच रहे होंगे क्या कह रहे होंगे इसके बारे में भी हम कोई ना कोई मान्यता बना लेते हैं और उसे पर्सनली लेते हैं। उसके बाद हम लोगों को अपनी मान्यता के आधार पर दोषी ठहराते हैं। इस तरह हम अपने शब्दों के माध्यम से लोगो तक जहर पहुंचाते हैं। इस तरह हम मान्यता और अनुमान लगाकर बेवजह अपने जीवन में परेशानियों को न्योता देते हैं।

कई बार हमारी मान्यता ही गलतफहमी का कारण बनती है जिन्हें हम पर्सनली ले लेते हैं। और ऐसा करने से हमारे जीवन में एक नाटक तैयार होता है जिसका कारण सिर्फ हमारी गलत मान्यता होती है। लोगों के बीच होने वाली सारी लड़ाइयाँ दूसरों के बारे में पूर्वानुमान लगाने और बातों को पर्सनली लेने की वजह से ही शुरू होती हैं।

अलग-अलग मान्यताएं बनाकर और बातों को पर्सनली लेकर हम बार बार भावनात्मक जहर का निर्माण करते हैं। हम अपनी ही मान्यताओं के आधार पर लोगों से बातें करते हैं।

यदि हमें सामने वाले की कोई बात समझ में ना आए तो हम उससे वही बात फिर से पूछने में हिचकिचाते हैं। और जितना हमें समझ में आया है, उसी आधार पर हम मान्यता बनाते हैं। फिर हम अपनी इस मान्यता को सही साबित करने के लिए सामने वाले को झूठा ठहराते हैं।

कोई भी मान्यता बनाने से पहले हमें सामने वाले से सवाल पूछकर उसकी बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। क्योंकि जब भी कोई नई मान्यता बनती है तब वह समस्या को ही न्योता देती है।

हम वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं और वही सुनते हैं, जो सुनना चाहते हैं। इससे चीज़ों को उनके असल रूप में देखने की हमारी तैयारी नहीं होती। हम अक्सर कल्पना में जीते हैं इसलिए धारणाएँ तुरंत बन जाती हैं। मगर कोई भी मान्यता बनाने के बाद जब सच हमारे सामने आता है तब हमारे झूठ का बुलबुला फूट जाता है। तब हमें पता चलता है कि हम जो सोच रहे थे, वैसा तो था ही नहीं।

एग्जांपल के लिए एक लड़का उसके शहर के सबसे बड़े मॉल में शॉपिंग करने के लिए जाता है। मॉल में घूमते समय अचानक उसके सामने एक खूबसूरत लड़की आ जाती है। दोनों की नज़रें एक-दूसरे से मिलती हैं। अपनी सहेली के साथ जाते समय वह लड़की बार-बार उस लड़के को पीछे मुड़कर देखती है और उसे देखकर मुस्कराती है। अब इस एक घटना की वजह से वह लड़का अपने मन में कल्पनाओं का पूरा जाल बना देता है। उस लड़की के बारे में वह कई सारी मान्यताएं बनाता है।

कल्पनाओं के कारण उसे यह विश्वास हो जाता है कि वह लड़की उसे पसंद करती है। वह लड़का दिन-रात उसी लड़की के बारे में सोचता रहता है। यहाँ तक कि वह उसके साथ शादी करने के सपने भी देखने लगता है। सच्चाई से महरूम उस लड़के को यह पता ही नहीं है कि वह अपने ही बनाए हुए काल्पनिक सपने में जी रहा है। अज्ञान में वह उसे ही सच मान बैठता है।

रिलेशनशिप के मामले में ऐसी मान्यताएं बनाने से अक्सर परेशानी ही आती है। हम अक्सर यह मान लेते हैं कि हमारे माता-पिता सब जानते हैं और हम जो चाहते हैं, उसके बारे में उन्हें कुछ बताने की ज़रूरत ही नहीं है।

हमें लगता है कि वे वही करेंगे जो हम चाहते हैं क्योंकि वे हमें अच्छी तरह जानते हैं। अगर वे हमारा मनचाहा काम नहीं करते या वैसा नहीं करते, जैसा हमारे हिसाब से उन्हें करना था तो हमारे दिल को ठेस लगती है और हम कहते हैं, ‘आपको सब कुछ पता था, फिर भी आपने ऐसा किया।’ इस बारे में पता होना चाहिए था।’ एक एग्जांपल के साथ इस बात को समझते हैं।

एक लड़का शादी करने का डिसीजन लेता है। उसे ऐसा लगता है कि शादी के बारे में उसकी और उसके जीवनसाथी की मान्यताएं एक जैसी ही हैं। लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद ही वह समझने लगता है कि उसकी यह मान्यता गलत थी। इसी मान्यता की वजह से उसके रिश्ते में संघर्ष पैदा होता है। इसके बावजूद वह लड़का अपनी शादी के बारे में अपनी भावनाओं के पर अपनी पत्नी से बात नहीं करता।

जब पति काम से वापस आता है तो उसे पता चलता है कि किसी कारण से उसकी पत्नी नाराज़ है। लेकिन उसे कभी भी अपनी पत्नी की नाराज़गी की वजह समझ में नहीं आती। दरअसल पत्नी की नाराज़गी के पीछे उसकी अपनी कोई मान्यता होती है। पत्नी हमेशा अपने पति से यह उम्मीद रखती है कि पति को कुछ बताए बिना ही उसे सब पता चल जाए, मानो वह उसका मन पढ़ना जानता हो। लेकिन जब पति अपनी पत्नी की ऐसी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता तो पत्नी मायूस और नाराज़ हो जाती है। और उनके बीच आपसी गलतफहमी, झगड़े और बहस होती है, जिससे उनका आपसी प्रेम कहीं खो जाता है।

इस तरह हर तरह के रिश्ते में लोग ऐसा समझते हैं कि सामनेवाला उनकी सारी भावनाओं को समझता है। इसलिए सामनेवाले को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। वे हमें अच्छी तरह से समझते हैं इसलिए वे वैसा ही करेंगे जैसी हम उनसे उम्मीद रखते हैं। लेकिन यदि लोग हमारी इच्छा अनुसार व्यवहार नहीं करते और लोगों के प्रति हमारी सारी मान्यताएं टूटती हैं तब हम बहुत ही नाराज़ होते हैं। फिर हम लोगों से पूछते हैं, ‘आप ऐसा कैसे कर सकते हैं, आपको तो सब पता होना चाहिए था।’ लोगों के अकाल्पनिक व्यवहार को देखकर हमारे मन में और अधिक धारणाएँ बनती हैं। धारणाओं से शुरू हुए इस नाटक का अंत और बड़ी धारणाएँ बन करके होता है।

यदि सामनेवाले ने कुछ कहा तो हम उसकी बात का हमें जैसा चाहिए वैसा अर्थ निकालकर एक नई धारणा बनाते हैं। यह सच है लेकिन यदि सामनेवाला कुछ न बोले तो भी हम उसके न बोलने का भी एक अर्थ निकालते हैं और धारणा बनाते हैं। हमने कोई बात सुनी तो हमें उसका अर्थ समझ में आए या न आए, हम अपने मन मुताबिक उस बात का अर्थ निकालते ही हैं और धारणा बनाते हैं। क्योंकि सवाल पूछने का साहस हमारे भीतर नहीं होता इसलिए ऐसी धारणाएँ बनती रहती हैं।

ऐसी धारणाएँ बहुत जल्दी और बेहोशी में बनती हैं। हमें ऐसा लगता है कि इस प्रकार से एक-दूसरे से बात हो सकती है। हम पहले ही तय कर चुके हैं कि सवाल पूछना ठीक नहीं है। हमने मान लिया है कि अगर लोग हमसे प्यार करते हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि हमें क्या चाहिए या हम कैसा महसूस करते हैं। हमारी खुद की धारणाएँ इतनी पक्की होती हैं कि खुद को सही साबित करने के लिए हम अपने रिश्ते तोड़ने का भी डिसीजन ले लेते हैं।

दरअसल किसी भी घटना के खरेपन को परखने के लिए सबसे पहले उस पर सोच-विचार होना बहुत जरूरी है।

एक बार सोचें कि यदि हम आज से ही अपने जीवनसाथी और संसार के अन्य लोगों के बारे में धारणाएँ बनाना छोड़ देंगे, तो क्या होगा? यकीन मानिए, आपके बात करने का अंदाज़ बदल जाएगा और आपके संबंध गलतफहमियों की भेंट नहीं चढ़ेंगे।

अगर आप चाहते हैं कि आप दूसरों के बारे में कोई धारणा न बनाऍं तो आपको प्रश्न पूछना सीखना होगा। आप जो भी चाहते हों, उसे कहने का साहस रखें। हर किसी को अपनी हाँ या ना कहने का अधिकार होता है। जिस तरह आप सवाल पूछने का अधिकार रखते हैं, उसी तरह हर किसी को आपसे सवाल पूछने का अधिकार है और आपको हाँ या ना कहने का अधिकार है।

जिस दिन आप धारणाएँ बनाने के बजाय स्पष्ट व सटीक बातचीत करना सीख लेंगे, उस दिन आप भावनात्मक ज़हर से मुक्त हो जाएँगे। बिना धारणाओं के कहे गए शब्द भी शुद्ध हो जाएँगे।

5. अपनी ओर से हमेशा सर्वश्रेष्ठ कार्य करें – चौथा एग्रीमेंट
एक आखिरी एग्रीमेंट हमें अपने साथ करना है, वह है – ‘अपनी ओर से हमेशा सर्वश्रेष्ठ कार्य करें।’ किसी भी हालत में अपना बेस्ट देने की कोशिश करें। लेकिन ये याद रखें कि आपका किसी काम में किया गया बेस्ट प्रयास, हर काम में बेस्ट ही होगा ऐसा नही है। क्योंकि हर समय आपकी एनर्जी लेवल अलग होती है। इसलिए कई बार आपका बेस्ट प्रयास हाई क्वालिटी का हो सकता है और कई बार हाई क्वालिटी का नहीं होगा।

जैसे आप सुबह-सुबह उठते हैं तब तरोताज़ा और जोश से भरपूर होते हैं। उस समय आपके द्वारा किया गया बेस्ट काम, रात में थकान की अवस्था में किए गए बेस्ट काम से निश्चित ही बेहतर होगा। संपूर्ण स्वास्थ्य की अवस्था में किया गया बेस्ट काम, बीमारी की अवस्था में किए गए बेस्ट काम से बेहतर ही होगा। आपका बेस्ट काम इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप बेहतरीन, खुश और जीवंत महसूस कर रहे हैं या आपको गुस्से व जलन का एहसास हो रहा है।

आपकी हर दिन की भावना के अनुसार आपका सर्वश्रेष्ठ प्रयास भी हर पल में बदल सकता है। यह हर घंटे या हर दिन अलग-अलग हो सकता है। क्वॉलिटी की परवाह किए बिना अपनी ओर से हमेशा बेस्ट काम करते रहें। अपने बेस्ट से न कम और न ज्यादा अच्छा कार्य करें। यदि आप अपने बेस्ट से भी बढ़कर और अच्छा काम करने का प्रयास करेंगे तो उसमें आपकी ज्यादा एनर्जी नष्ट होगी और काम वैसा होगा नहीं, जैसा आप करना चाहते थे।

जब आप आवश्यकता से अधिक कुछ करते हैं तो आप अपने बेसिक स्वभाव के विपरीत काम करते हैं। ऐसा करने से आपको अपना लक्ष्य पाने में अधिक समय लगता है। लेकिन यदि आप अपनी काबिलियत से भी बहुत कम काम करते हैं तो आपको निराशा, अपराधबोध और पश्चाताप महसूस होता है। ऐसे में आप खुद को ही परखने लगते हैं। इसलिए सबसे आसान बात यह है कि आप अपनी ओर से हमेशा बेस्ट काम करते रहें।

चाहे आप बीमार हों या स्वस्थ, जब तक आप बेस्ट काम करते रहेंगे तब तक आपको कभी भी बुरा महसूस नहीं होगा।

एक इंसान अपने जीवन के कष्टों से मुक्ति पाने के लिए एक बौद्ध मठ में जाता है ताकि वहाँ के गुरु से मदद ली जा सके। मठ के भीतर उसे एक बौद्ध गुरु दिखाई दिए, जो उस समय ध्यान कर रहे थे। वह इंसान उनके सामने जाकर बैठ गया। जैसे ही वे गुरु ध्यान से उठे, उस इंसान ने तुरंत अपनी बात कहनी शुरू कर दी। उसने गुरु से पूछा, ‘यदि मैं प्रतिदिन चार घंटे ध्यान करता हूँ तो क्या अपने कष्टों से मुक्त होकर मोक्ष पा सकता हूँ?’

उसे देखकर गुरु ने कहा, ‘अगर तुम दिन में चार घंटे ध्यान करो तो दस वर्ष में मोक्ष पा लोगे।’ उस इंसान को लगा कि वह और बेहतर कर सकता है। इसलिए उसने पूछा, ‘गुरुजी, यदि मैं दिन में आठ घंटे ध्यान करता हूँ तो मोक्ष पाने में कितना समय लगेगा?’ गुरु ने उसे फिर से देखकर कहा, ‘अगर तुम दिन में आठ घंटे ध्यान करो तो शायद बीस वर्ष में मोक्ष पा लोगे।’ ये जवाब सुनकर वह इंसान चौंक पड़ा और सोचने लगा कि ‘अधिक ध्यान करने पर दुगना समय क्यों लगेगा?’

गुरु ने जवाब दिया, ‘तुम यहाँ अपने जीवन या आनंद को समर्पित करने नहीं आए हो। यहाँ आने के पीछे तुम्हारा उद्देश्य है, खुशी और प्रेम से भरा जीवन जीना। अगर तुम दो घंटों के ध्यान को बेहतर तरीके से करने की बजाय दिन के आठ घंटे ध्यान को दे दोगे तो थकान के सिवा कुछ हाथ नहीं आएगा और तुम जीवन का आनंद खो दोगे। ध्यान के दौरान एक समय ऐसा आता है, जिसमें मिली हुई ऊर्जा तुम्हें अपना जीवन खुशी से जीने की प्रेरणा देगी। मगर अधिक समय तक ध्यान करने के प्रयास में तुम वह समय भी गँवा बैठोगे। भले ही तुम कम समय तक ध्यान करो, लेकिन वह सर्वश्रेष्ठ करो। इसी से तुम्हारा जीवन प्रेम, खुशी और उत्साह से भर जाएगा।’

जब आप हमेशा सर्वश्रेष्ठ कार्य करने के निर्णय पर दृढ़ रहते हैं तब निश्चित ही आप अपना हर कार्य उत्साह के साथ पूरा करते हैं। इससे आपकी काबिलियत बढ़ती जाती है। फिर आप अपने आपको, अपने परिवार, समाज और आस-पास के सभी को समय देने लगते हैं। लेकिन हमेशा यह याद रखें कि आपके इसी काम से आपको खुशी मिलेगी।

हर काम में अपना बेस्ट दे किसी भी काम को बोझ समझ न करे और किसी भी काम को रिवॉर्ड पाने की उम्मीद से न करे। अगर आप केवल अपने काम पर ध्यान दें और किसी भी उम्मीद के बिना काम करें तो आपको उम्मीद से अधिक बढ़कर आनंद मिलेगा। रिवॉर्ड की उम्मीद के बिना काम करेंगे तो उससे कहीं अधिक आप हासिल कर सकते हैं, जिसके बारे में आपने कल्पना तक न की होगी। अगर हमें अपने काम से प्यार है तो हम हमेशा बेस्ट ही करना चाहेंगे, तभी हम सही मायने में अपने जीवन का आनंद लेंगे। फिर हम अपने काम का आनंद लेंगे, काम से ऊबेंगे नहीं और कभी निराश भी नहीं होंगे।

जब आप अपनी ओर से बेस्ट काम करते हैं तब सही मायने में आप अपने असली स्वभाव के अनुसार आचरण करते हैं। इसी तरह जब आप कोई काम मजबूरी में करते हैं तो आप अपने असली स्वभाव से दूर जाते हैं और वह काम बेस्ट नहीं हो पाता। जब आप लगातार बेस्ट काम करते रहेंगे तो आप इस कला में माहिर हो जाएँगे।

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